भीष्म की प्रतिज्ञा | Bhishmas Vow HINDI STORY

भीष्म की प्रतिज्ञा | Bhishmas Vow HINDI STORY

बहुत समय पहले की बात है, राजा शान्तनु नाम के एक राजा थे। राजा शान्तनु बहुत ही शक्तिशाली और धर्मप्रिय राजा थे। उनकी एक पत्नी थी जिनका नाम गंगा था, और उनके एक पुत्र था, जिसका नाम देवव्रत था। देवव्रत बहुत ही साहसी, बुद्धिमान और शूरवीर थे। जब वे बड़े हुए, तो उन्हें राज्य का युवराज बनाया गया, यानी कि वे भविष्य में राजा बनने वाले थे।

समय बीता, और एक दिन राजा शान्तनु नदी के किनारे टहल रहे थे। वहाँ उनकी मुलाकात सत्यवती नाम की एक सुंदर मछुआरिन से हुई। सत्यवती बहुत ही सुंदर और गुणी थी, और राजा शान्तनु उनसे विवाह करना चाहते थे। लेकिन सत्यवती के पिता ने एक शर्त रखी। उन्होंने कहा कि अगर राजा शान्तनु सत्यवती से विवाह करना चाहते हैं, तो उनके पुत्र को ही अगला राजा बनाना होगा, यानी सत्यवती के पुत्र को राजा बनने का अधिकार मिलना चाहिए।

यह सुनकर राजा शान्तनु बहुत परेशान हो गए। वे अपने पुत्र देवव्रत से बहुत प्रेम करते थे, और उन्हें युवराज बनाकर उन्होंने पहले ही वचन दे दिया था कि वे ही अगले राजा होंगे। राजा शान्तनु इस धर्मसंकट में फँस गए थे कि वे सत्यवती से विवाह भी करना चाहते थे, लेकिन अपने पुत्र के अधिकार का त्याग भी नहीं कर सकते थे। राजा की चिंता देखकर देवव्रत ने कारण जानने की कोशिश की। जब उन्हें सच्चाई पता चली, तो उन्होंने एक बहुत बड़ा निर्णय लिया।

देवव्रत अपने पिता के पास गए और कहा, “पिताजी, आपकी खुशी के लिए मैं राजगद्दी छोड़ दूँगा। मैं सत्यवती के पुत्र को राजा बनने दूँगा।” यह सुनकर राजा शान्तनु बहुत दुखी हुए, लेकिन देवव्रत यहीं नहीं रुके। उन्होंने सत्यवती के पिता को यह वचन भी दिया कि वे कभी विवाह नहीं करेंगे और जीवन भर ब्रह्मचारी रहेंगे। इसका मतलब था कि उनके कोई संतान नहीं होगी, और वे पूरी तरह से राजगद्दी से दूर रहेंगे।

देवव्रत के इस बड़े त्याग और वचन को देखकर सभी लोग चकित हो गए। उनके इस महान संकल्प के कारण उन्हें “भीष्म” का नाम दिया गया, जिसका अर्थ है “भयंकर प्रतिज्ञा करने वाला”। भीष्म ने अपने जीवन में कभी भी अपना वचन नहीं तोड़ा और जीवन भर धर्म और कर्तव्य के मार्ग पर चले।

राजा शान्तनु को अपने पुत्र के इस त्याग पर गर्व हुआ, लेकिन वे दुखी भी हुए कि उनका पुत्र अब कभी विवाह नहीं करेगा और राजगद्दी से भी दूर रहेगा। राजा शान्तनु ने अपने पुत्र भीष्म को आशीर्वाद दिया कि वे जब तक चाहें तब तक जीवित रह सकते हैं। इस वरदान के कारण भीष्म को इच्छा मृत्यु का वरदान मिला। इसका मतलब था कि वे तभी मरेंगे जब वे खुद मरने की इच्छा करेंगे।

भीष्म का यह वचन और त्याग महाभारत की कहानी में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। उन्होंने जीवन भर हस्तिनापुर राज्य की सेवा की और धर्म का पालन किया। वे अपने वचन, कर्तव्य और आदर्शों के प्रतीक बने। महाभारत में भीष्म की भूमिका हमें यह सिखाती है कि सच्चे योद्धा वही होते हैं जो अपने वचन और कर्तव्य के प्रति अडिग रहते हैं, चाहे परिस्थितियाँ कितनी भी कठिन क्यों न हों।

भीष्म के इस महान संकल्प और त्याग ने उन्हें इतिहास में अमर बना दिया। उनके इस त्याग से यह शिक्षा मिलती है कि सच्चे वीर वही होते हैं जो अपने परिवार और समाज के लिए बड़े से बड़े त्याग करने को तैयार होते हैं। 

भीष्म का जीवन हमें यह भी सिखाता है कि कर्तव्य और धर्म का पालन जीवन में सबसे महत्वपूर्ण है। उन्होंने कभी भी अपने व्यक्तिगत सुख और इच्छाओं को अपने कर्तव्यों से ऊपर नहीं रखा। उनकी निष्ठा और त्याग की कहानी आज भी हमें प्रेरित करती है और सिखाती है कि सच्ची महानता अपने कर्तव्यों को निभाने में है।

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